Saturday 16 December 2017

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का आखिरी भाषण: मैं तो कहता हूं एक बार पढ़ लेना चाहिए


"सत्ता, शोहरत और स्वार्थ आपके मकसद नहीं हैं। देश आपका मकसद है। इस देश के मूल्यों की रखवाली करना आपका मकसद है। ये ही मंजिल है। हम सब जानते हैं कि किस तरह हमारे देश के बुनियादी उसूलों पर रोज रोज हमला हो रहा है। बोलने और अपने आप को अभिव्यक्त करने की आजादी को तोड़ा जा रहा है। हमारी मिलीजुली संस्कृति पर वार हो रहा है। हर तरफ से संदेह का माहौल, एक भय का माहौल बनाया जा रहा है। इस बीच कांग्रेस को भी अपने अन्तर्मन में झांककर आगे बढ़ना पड़ेगा।"
पढ़िए पूरा भाषण : 

PC : PTI
आज मैं आख़री बार आपको कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में संबोधित कर रहीं हूं। एक नया दौर, एक नए नेतृत्व की उम्मीद आपके सामने है। 20 साल पहले जब आपने मुझे अध्यक्ष पद के लिए चुना और मैं इसी तरह एक दिन आपको संबोधित करने के लिए खड़ी थी। मेरे दिल में घबराहट थी। यहां तक कि मेरे हाथ कांप रहे थे। मैं सोच नहीं सकती थी कि किस तरह मैं इस एतिहासिक संगठन को संभालूंगी। मेरे सामने एक बहुत कठिन कर्तव्य था। तब तक राजनीति से मेरा नाता निजी था। जैसा कि आप सब जानते हैं कि राजीव जी और मेरा विवाह हुआ। उसी के जरिए मेरा राजनीति से परिचय हुआ, जिस परिवार में मैं आई, वह एक क्रांतिकारी परिवार था। इंदिरा जी उसी परिवार की बेटी थीं, जिस परिवार ने स्वतंत्रता संग्राम के लिए अपना धन, दौलत, पारिवारिक जीवन का त्याग किया था। उस परिवार का एक एक सदस्य देश की आजादी के लिए जेल जा चुका था। देश ही उनका मकसद था। देश ही उनका जीवन था।
PC : PTI
इंदिरा जी ने मुझे बेटी की तरह अपनाया। उनसे मैंने भारत की संस्कृति सीखी। उन उसूलों को सीखा, जिनपर इस देश की नींव डली है। 1984 में उनकी हत्या हुई। मुझे ऐसा महसूस हुआ, जैसे कि मेरी मां मुझसे छीन ली गई हैं। इस हादसे ने मेरे जीवन को हमेशा के लिए बदल डाला। उन दिनों मैं राजनीति को एक अलग नजरिए से देखती थी। मैं अपने आपको, पति और बच्चों को इससे दूर ही रखना चाहती थी, लेकिन मेरे पति के कंधों पर एक बड़ी जिम्मेदारी थी। उसे अपना कर्तव्य समझकर उन्होंने पीएम का पद स्वीकार कर लिया। इस जिम्मेदारी को निभाने के लिए उन्होंने दिन-रात एक किए। उनके साथ मैंने देश के कोने-कोने का दौरा किया और लोगों की समस्या को समझा। देश के सामने चुनौतियों को जाना।
इंदिरा जी की हत्या के बाद सात साल बीते थे कि मेरे पति की भी हत्या की गई। मेरा सहारा...  मुझसे छीन लिया। इस दौर को पार करने में कई साल बीत गए। जब मुझे एहसास हुआ कि कांग्रेस पार्टी कमजोर हो रही है। उसके सामने चुनौतियां आ रही हैं। और सांप्रदायिक तत्व उभर रहे हैं तभी मुझे पार्टी के आम कार्यकर्ताओं की पुकार सुननी पड़ी। 
मुझे ये महसूस हुआ कि इस जिम्मेदारी को नकारने से इंदिरा जी, राजीव जी दोनों की आत्मा को ठेस पहुंचेगी और उनका बलिदान बेकार जाएगा, इसलिए देश के लिए कर्तव्य को पूरा करने के लिए मैं राजनीति में आई। उस समय कांग्रेस के पास मुझे याद है शायद केवल 3 राज्यों में सरकार थी। हम केंद्र सरकार से भी कोसों दूर थे। इस चुनौती का सामना किसी एक व्यक्ति का चमत्कार नहीं कर सकता था। आप सबके सहयोग से हम सबने बेमिसाल कामयाबियां हासिल कीं। और फिर एक के बाद एक दो दर्जन से अधिक राज्यों में सरकारें बनीं। ऐसे परिणाम मजबूत इरादे, अपने सिद्धांतो के प्रति संकल्प और समर्थन से प्राप्त होते हैं।

कांग्रेस के लाखों कार्यकर्तागण, मेरे प्यारे भाइयों और बहनों इस जीवन यात्रा में आप मेरे हमसफर रहे हैं। मार्गदर्शक रहे हैं। मैं आप सबको धन्यवाद देती हूं कि आपने हर मोड़ पर मेरा साथ दिया। मैंने आपसे जो सीखा और समझा उसकी कोई तुलना नहीं हो सकती। मेरे अध्यक्षता के शुरुआती सालों में हमने मिलकर पार्टी को एकजुट रखने की लड़ाई लड़ी।

''मैं पति और बच्चों को राजनीति से अलग रखना चाहती थी. जब मैंने पद संभाला, उस वक़्त हमारी सिर्फ़ 3 राज्यों में सरकार थी. उसके बाद हम सब ने मिलकर अपनी सोच और संकल्प से 2 दर्जन से ज़्यादा राज्यों में सरकार बनाई.''
PC : PTI
2004 से अगले 10 सालों तक हमारी पार्टी ने अनेक दलों के साथ मिलकर देश की जनता को एक जिम्मेदार और प्रगतिशील सरकार दी। जिसका नेतृत्व डॉ. मनमोहन सिंह जी ने ईमानदारी से किया। हमने समाज के हर तबके का प्रतिनिधित्व और विकास किया। हम इस तथ्य पर गर्व करते हैं कि इस दौरान हमने कई ऐसे कानून बनाए जो लोगों के अधिकारों पर आधारित थे, जिनके बल पर शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन, रोजगार जानकारी आदि के अधिकार का फायदा हम देश के करोड़ों भाई-बहनों को दे पाए।

2014 से एक बार फिर हम विपक्ष की भूमिका निभा रहे हैं, शायद इतनी बड़ी चुनौती जितनी आज है हमारे सामने कभी नहीं रही। आज हमारे संवैधानिक मूल्यों पर हमला किया जा रहा है, इसके साथ-साथ हमारी पार्टी कई चुनाव हार चुकी है, लेकिन हमारे कार्यकर्ताओं में बेमिसाल साहस जीवित है। हम डरने वालों में से नहीं हैं। हम झुकने वाले नहीं है। हमारा संघर्ष इस देश की रूह के लिए है। हम इससे कभी पीछे नहीं हटेंगे। आप सब कांग्रेस के कार्यकर्ता और नेता हैं। आप सब उन उसूलों के रखवाले हैं, जिनपर ये देश बना है। 

ये कोई छोटी सी चीज नहीं है। सत्ता, शोहरत और स्वार्थ आपके मकसद नहीं हैं। देश आपका मकसद है। इस देश के मूल्यों की रखवाली करना आपका मकसद है। ये ही मंजिल है। हम सब जानते हैं कि किस तरह हमारे देश के बुनियादी उसूलों पर रोज रोज हमला हो रहा है। बोलने और अपने आप को अभिव्यक्त करने की आजादी को तोड़ा जा रहा है। हमारी मिलीजुली संस्कृति पर वार हो रहा है। हर तरफ से संदेह का माहौल, एक भय का माहौल बनाया जा रहा है। इस बीच कांग्रेस को भी अपने अन्तर्मन में झांककर आगे बढ़ना पड़ेगा। अगर हम अपने उसूलों पर खुद खरे नहीं उतरेंगे तो हम आम आदमी को हितों की रक्षा नहीं कर पाएंगे। ये एक नैतिक लड़ाई है। इसमें जीत हासिल करने के लिए हमें अपने आप को भी दुरुस्त करना पड़ेगा। और किसी भी त्याग या बलिदान के लिए हमेशा तैयार रहना पड़ेगा।
PC : PTI
साथियों भारत एक युवा देश है। मुझे पूरा भरोसा है कि नवीन नेतृत्व से पार्टी में नया जोश आएगा। आपने इस नेतृत्व के लिए राहुल को चुना है। राहुल मेरा बेटा है, उसकी तारीफ करना मुझे उचित नहीं लगता। मगर मैं इतना जरूर कहूंगी कि बचपन से ही राहुल ने हिंसा का अपार दुख झेला था। राजनीति में आने पर उसने एक ऐसे भयंकर व्यक्तिगत हमले का सामना किया जिसने उसे निडर और मजबूत दिल का इंसान बनाया है।
मुझे उसकी सहनशीलता और दृढ़ता पर गर्व है और मुझे पूरा विश्वास है कि राहुल पार्टी का नेतृत्व सच्चे दिल, धैर्य, पूरे समर्पण के साथ करेंगे। जैसे आप सब नए रास्ते पर बढ़ेंगे, आपकी हर उपलब्धि में मेरी खुशी शामिल होगी। ये रास्ता हमारे पूर्वजों के विवेक, उनके उदार सिद्धांतों और कांग्रेस पार्टी की परंपराओं से मार्गदर्शित हो और देश के करोड़ों युवाओं और जन जन की आशाओं अपेक्षाओं पर खरा साबित हो।

साथियों, 20 साल गुजर गए हैं, करीब करीब जीवन का एक  हिस्सा बीत गया है। आज इस जिम्मेदारी को छोड़ते हुए सभी कांग्रेसजनों और देश के नागरिकों द्वारा दिए गए असीम प्यार, स्नेह के लिए तहेदिल से शुक्रिया अदा करती हूं। आप सबका दिल से धन्यवाद।

जयहिंद!


Friday 15 December 2017

इस बार बच गया, शायद अगली बार मुस्कुरा भी न पाऊं!

PC : Amitesh Sinha

दिल्ली में सीलमपुर की रेड लाइट। शाम के 3.30 बजे थे। मन में था कहीं लेट होने की वजह से बॉस के सुंदर वचनों से ऑफिस में मेरी आरती न उतारी जाए, इसलिए ऑफिस जाने के लिए जल्दी में था। 4 बजे तक आईटीओ पर पहुंचना था। रेड लाइट क्रॉस ही कर रहा था कि कोई चार-पांच या फिर 6-7 लौंडो ने घेर लिया। मैं उनके घेरे को नहीं समझ पाया। मुझे लगा था कि मेरी तरह ही लोग होंगे जो रोड क्रॉस कर रहे हैं। मेरी ये गलत सोच अगले पल ही बिखर गई, क्योंकि मैं उनकी गिरफ्त में आ चुका था। सामने से गुजर रही गाड़ी दूर होने के बादजूद वो लोग पीछे को ये कहते हुए हटने लगे कि अरे कैसे गाड़ी चला रहा है मारेगा क्या? ये कहते कहते पूरी तरह घेरे में ले लिया था।
मैं तो जल्दी में था ही उनको साइड कर आगे निकलने को कोशिश में था, मगर मेरे सामने वाला इस स्टाइल में पीछे हटा कि उसने मेरे दोनों पैरों पर अपने पैर रख दिए और सॉरी सॉरी का ढोंग करके मेरे माइंड को कैप्चर करने लगा। मेरा दिमाग उन पैरों में दब चुका था। फौरन ही उसके दो साथियों ने भी अपना हुनर दिखाना शुरू कर दिया। हाथ की सफाई वाला हुनर। दो हाथ मेरी जेब में गए। एक में पर्स था दूसरी में मोबाइल। उनके जादू का मुझे एहसास भी नहीं हुआ कि मेरे साथ हो क्या रहा है। मोबाइल जेब से बाहर आने ही वाला था कि मेरा हाथ जेब पर लगा। तो लड़के का हाथ भी टच हुआ। मैंने फौरन मोबाइल थाम लिया।
अब आधा मोबाइल मेरे हाथ में था और आधा लुटेरे के। दिमाग सुन्न हो चुका था। बिल्कुल इस तरह जैसे दिसंबर की ठंड में किसी ने मेरे दिमाग पर बर्फ की सिल्ली रख दी हो। होता भी क्यों नहीं, उन लोगों के चाकू और पिस्तौल अब मुझे दिखने लगे थे। मोबाइल पकड़े हुए मैं एक शब्द नहीं बोल पाया। बस उन लोगों को देखकर मुस्कुराता रह गया। ये सब बहुत तेजी से हुआ। इतनी तेजी से कि अगर आप ऊपर से यहां तक सब एक सांस में भी पढ़ जाओ तो भी शायद ज्यादा टाइम लगे। इतनी स्पीड से हुआ सबकुछ। मेरी लाचारी वाली मुस्कुराहट थी या फिर कुछ और कि जो मुझे घेरे खड़े थे उन लोगों ने छोड़ दिया। पर्स वाला हाथ भी बाहर हो गया। मैं खुद के बचने से जितना ज्यादा हैरान था, उतना ही ज्यादा डर के मारे परेशान था। कोई उस वक्त पुलिस वाला भी नजर नहीं आया। उनके घेरे से निकलकर ऑटो में बैठा। दिमाग अब भी सुन्न था। ऑटो वाला पूछ रहा है कहां जाना है। मैं उसे बता नहीं पा रहा हूं। बस चलने को बोल रहा हूं। जल्दी चलो यहां से। कुछ दूर चलकर बताया आईटीओ जाना है।
मैं ऑटो में बैठा सोचता रहा, अगर मैं मुस्कुराया न होता तो क्या हो जाता आज। सोच रहा था, मोबाइल निकालने वाले को तेज आवाज में अगर इतना भी बोल देता है, क्या है? तो आज मेरी खैर नहीं थी। पता नहीं कौन सी डिग्री मेरे ऊपर इस्तेमाल करते। चाकू चलता या फिर पिस्तौल। ऑफिस पहुंचकर ब्लॉग लिख रहा हूं तो यकीन नहीं हो रहा कि मैं और मेरा सामान सब सेफ है। वो भी एक मुस्कुराहट की वजह से! 

लुटेरे के लिए न मैं हिंदू था न मुसलमान। उन्होंने मेरा नाम भी नहीं पूछा था। बस उनके लिए शिकार था। लूट का शिकार! न यहां गोमाता की बात थी। न कोई वंदे मातरम चिल्ला रहा था। न मस्जिद या मंदिर की नींव रख रहा था। न पाकिस्तान के षड़यंत्र रचने की बात कर रहा था। न ये था कि एक मुसलमान सीएम न बन जाए। हां यहां वो हो सकता था जो होना चाहिए था। जिनको इन बकलोलियों ने खिलौना बना दिया है। वो है कानून! कानून पर फोकस होता। सुरक्षा कड़ी होती। पुलिस का खौफ होता तो मैं बेखटक ऑफिस जा सकता था।

दूसरी बार मोबाइल लुटने से बचा है। पहली बार नोएड में अटैक हुआ था। बाइक सवार लुटेरों ने सेक्टर 63 में पुलिस बूथ के पास पीछे से सिर पर जोरदार थप्पड़ मारा था। मोबाइल पर बात करता हुआ जा रहा था कोई तीन साल पहले। मोबाइल छीनने की कोशिश की थी, मोबाइल नीचे गिर गया था। लुटेरे रुक इसलिए नहीं पाए थे कि पुलिस बूथ बराबर में था वरना रुककर लूट ले जाते। इस वारदात के बाद से मोबाइल को रास्ते में जेब से नहीं निकालता था। जेब में ही रखता था। कॉल आने पर भी तब तक नहीं निकालता था जब तक श्योर न हो जाऊं कि सेफ हूं या नहीं।

.... लेकिन अब तो जेब पर ही हमला हुआ। अब कैसे घर से निकलूंं?

क्या मैं वंदेमातरम का नारा लगाकर चलूं तो सेफ रहूंगा। प्लीज सलाह दें। मुझे रोज ही पेट की भूख मिटाने के लिए घर से बाहर निकलना पड़ता है, ताकि ऑफिस जा सकूं। इस बार बच गया पता नहीं अगली बार मुस्कुरा भी न पाऊं...! मैं तो दुआ कर रहा हूं आप सब सेफ रहें।

Tuesday 12 December 2017

जश्न-ए-रेख्ता छलकता जाम था, लो पी गया

जश्न-ए-रेख़्ता। अदीबों, शायरों के लिए सजा स्टेज, जिसके ज़रिए उर्दू पर बात हो सके। उर्दू से इश्क कराया जा सके। मुझे लगा था उर्दू के दीवाने होंगे। एक से बढ़कर एक दानिशमंद लोग होंगे। शायर लब हिलाएगा दीवाने उसकी बात को पहले समझ लेंगे। मैं ये सोचकर परेशां था कि उर्दू इश्क की ज़बां, फिर उसका जश्न मेजर ध्यानचंद स्टेडियम में क्यों? स्टेडियम में तो खेल होते हैं। उर्दू तो इश्क़ कराती है। सुना ही होगा, ये इश्क नहीं आसां, एक आग का दरिया है...' जब स्टेडियम पहुंचा तो मुझे लगा, बहुत सही फैसला था। उसे मुबारकबाद देनी चाहिए जिसने स्टेडियम में ये महफिल रखी। वो तारीफ का हक़दार है। उसे पता था क्या क्या खेल होने वाले हैं। सब लोग यहां अपने-अपने हिसाब से खेल ही तो रहे थे। बड़े दिलचस्प खिलाड़ी यहां पहुंचे थे। मिलवाता हूं आपको उनसे। मिलिए :


1. फोटो खींचक। ये वो थे जो पंजे के बल उचककर, कभी 90 डिग्री पर झुककर, कभी जमीन पर बैठकर, कभी एक लालटेन के इर्द गिर्द या फिर लड़कियों के चक्कर काटकर कैमरे से क्लिक, खिच्चक सी आवाज़ निकाल रहे थे। अल्लाह जाने उर्दू की नफासत कैमरे आई या नहीं, लेकिन बड़े-बड़े कैमरे गले में लटका देखकर उर्दू ने सोचा जरूर होगा कि कहीं आज मैं इश्क करते हुए रंगे हाथ न पकड़ी जाऊं। मलाल रहा होगा काश कोई कैमरे की तरह मुझे भी अपने अंदर उतार लेता तो बदले में, मैं भी उसकी ज़बान में शीरी घोल देती। मगर फूटी किस्मत। चार दिन का प्यार करने वालों की शायरी में सिमटकर रह गई हूं। ये जश्न मेरे लिए ऐसा ही है जैसे कोई ब्यूटी काॅन्टेस्ट हो। मेरे सिर ताज रखा जाएगा, इसके बाद कहां होऊंगी, पता नहीं।

मंटो होते तो जरूर ये देखके ज़हर मांग लेते।
2. सेल्फीबाज! ये बड़े ही खूबसूरत लोग थे। इन्हें खुद से इश्क़ था। इश्क़ की तलाश भी थी। बड़ी तमन्ना से पहुंचे थे, कोई तो हमपर भी नज़र डाले। कौन सा ऐसा कोना था, जहां कोई सेल्फीबाज़ नहीं था। उर्दू पक्का सेल्फी प्वाइंट को अपनी सौतन मान बैठी होगी बेचारी। और माने भी क्यों न। लोगों को न किताबों में दिलचस्पी थी और न उन अदीबों, शायरों में जो माइक पकड़े अपना गला खुश्क़ कर रहे थे। लोग 'आई लव उर्दू' वाले तो कहीं 'इश्क़ उर्दू' वाले सेल्फी प्वाइंट से चिपके जा रहे थे। उर्दू बेचारी ये सब देखकर ऐसे बेचैन थी जैसे प्यासे के सामने पानी। 

सेल्फीबाज़ चेहरे पर अजीब-अजीब एक्सप्रेशन ला रहे थे, ताकि एक सेल्फी ढंग की आ जाए, और फिर सोशल मीडिया पर सजाई जा सके। चेक इन कर सकें। एट जश्न-ए-रेख्ता। ऐसा करके इलीट फीलिंग आ जाती है न, बस इसलिए। वैसे जो चेहरे पर एक्सप्रेशन ला रहे थे, वो बेचारी उर्दू को पक्का ऐसे फील हुए होंगे जैसे ये सेल्फीबाज़ उर्दू का मुंह चिढ़ा रहे हों।

3. दुकानदार। भाई साहब पूछो मत जबरदस्त खेल तो इनका था। पता है एक A3 और A4 पोस्टर कितने का था। 200 रुपये का। महज एक फोटो और उसपर शायर का एक शेर या कोट। आप ऐसे पोस्टर खुद कंप्यूटर पर बना सकते थे, शायद और भी अच्छा बना सकते थे। हद तो ये थी झोले बिक रहे थे, 40-50 रुपये में भी जो आप बाज़ार से न खरीदो वो झोला पूरे 300 रुपये का। उसपर लिखा क्या था ये और भी बड़ा खेल था। सेकुलर झोला, फेमिनिस्ट झोला। मतलब सेकुलर बनना है या फेमिनिस्ट दिखना है तो बस 300 रुपये वाला झोला उठाके चल दो। उर्दू ने ये देखकर माथा जरूर पीटा होगा कि इस झोले में मैं कहां हूं? या फिर सोचा होगा कि मैं तो He, She नहीं करती आप-आप करती हूं फिर ये झोले किसलिए? अब आप बताइऐ इतने महंगे आइटम कौन खरीदता, जो बाज़ार में पहले ही सस्ते हों। तो कैसे उर्दू का भला होता।

50 रुपये वाली चाय की लाइन।
4.लज़ीज़ फूड काॅर्नर। ये ही वो जगह थी जो हमेशा गुलज़ार रही। कहां किस पंडाल या स्टेज पर क्या हो रहा है, ये लोग इस मोह माया से बहुत ऊपर उठ चुके थे। इन्हें न उर्दू से बैर था न हिंदी से इश्क। मशग़ूल थे लज़ीज़ गुलावटी क़बाब खाने में। चाय के स्टाॅल पर तो इतनी भीड़ थी कि लाइन लगकर लोग चाय खरीद रहे थे। ये भीड़ शायद इसलिए भी हो सकती है कि सबसे सस्ती ये ही थी पूरे फूड कोर्ट में। 50 रुपये की चाय। स्वाद ऐसा, न पूछो तो ठीक है। चाय के स्टाॅल पर भीड़ देखकर लगा कि एक अदीब या शायर रेख़्ता वालों को यहीं बैठा देना चाहिए था। कम से कम लोग चाय के बहाने ही कुछ सुन तो लेते। उर्दू फूड कोर्ट को गुलज़ार देखकर कंफ्यूज़ हुई होगी कि खुश होऊं या दुखी? लोग मेरे बहाने घूमने निकल आए ये खुशी की बात है। मुझे नहीं सुना तो आए क्यों ये दुखी होने की बात है।

PC: Ankur kumar SIngh

आखिरी बात! 

वैसे तो कुछ भी आखिरी नहीं होता, लेकिन बात को एक खूबसूरत मोड़ पर भी तो खत्म करना होता है। जश्न-ए-रेख्ता में उर्दू! इश्क! नजाकत! नफासत! ओह! वाॅव! सेल्फी! लव बर्ड्स! लज़ीज़ क़ोरमा, बिरयानी! सब मौजूद था। ये जश्न नहीं था छलकता जाम था। लोग नोश फरमाने पहुंच रहे थे। जश्न-ए-रेख़्ता मयखाना था। सब ने जाम छलकाए। मैं भी जाम पी गया। उर्दू कहीं कव्वाली से छलकी, कहीं नज़्म बनी। कहीं काॅमेडी हुई। उर्दू की नहीं सच्ची की स्टैंड अप काॅमेडी। कहीं महबूब को महबूबा से मिलाया तो कई के मिलने के वादे पूरे हो गए। 

सब थक कर मयखाने से घरों को लौटते रहे। घर पहुंचते-पहुंचते वो नशा उतर जाएगा, क्योंकि लोग कहते निकले इस बार वो मज़ा नहीं आया जो पहली बार और दूसरी बार के जश्न-ए-रेख्ता में आया था। इस बार अच्छे लोग नहीं बुलाए। ये मज़ा तलाशने वाले लोग अगले साल फिर आएंगे। अपने नए पार्टनर के साथ। जश्न होगा उर्दू का। इन लोगों को तो मज़ा चाहिए, जो इसबार नहीं आया। उम्मीद है रेख़्ता टीम अगली बार और मज़ेदार जश्न करेगी। उर्दू का क्या है वो तो किताबों में लिखी है। भले अब उसे कोई पढ़ने वाला रहे या न रहे। बस जश्न होता रहे। लेकिन एक बात अच्छी है इस जश्न की, जैसे रात भर जाम नोश फरमाने के बाद खुमारी रहती है, वैसे ही इसकी भी लोगों पर रही होगी। ये अच्छा इसलिए है कि न से कुछ हां तो है।

Monday 14 November 2016

पता चल गया सोनम गुप्ता बेवफा नहीं, आशिक कमीना है


'सोनम गुप्ता बेवफा है' क्या तुम भी यही मानते हो. क्या तुम सोनम का जवाब सुनना नहीं चाहोगे ? क्या उसे बोलने का मौका नहीं दोगे? मरने वाले से भी उसकी अंतिम इच्छा मालूम की जाती है. सोनम को जाने बिना बेवफा कहना नाइंसाफी होगी. मैं तो कहता हूं अच्छा किया जो उसने उस सिरफिरे आशिक को छोड़ दिया. क्योंकि उसे तो कभी सोनम से प्यार ही नहीं था. उसे सिर्फ चाहत थी सोनम को पाने की. उसे हासिल करने की. कभी उसने सोनम से इश्क ही नहीं किया. हासिल नहीं कर पाया तो कर दिया उसे बदनाम, वो भी सिर्फ 10 रुपये में. कितना नीच था जो सोनम की कीमत नहीं जान सका. और लिख दिया वो जो कभी किसी सच्चे आशिक ने अपनी महबूबा को नहीं कहा.

इस आशिक ने तो सोनम को बेवफा साबित कर दिया. एक हमारी आशिकी देखो कि जब 'सनम बेवफा' हुई तो हम उसके दीवाने हो गए. न जाने अबतक कितनी बार सनम बेवफा को देख चुके हैं. हर बार उतनी ही मोहब्बत होती है जितनी पहली बार देखने पर हुई थी. दिमाग के घोड़े न दौड़ाओ सलमान खान की फिल्म की बात कर रहा हूं. 'सनम बेवफा' 11 जनवरी 1991 में रिलीज हुई थी. मैं तो पैदा भी नहीं हुआ था. उसी साल 2 जुलाई को पैदा हुआ था. पहली बार जब सनम बेवफा देखी तो उसका एक गाना दिमाग में ऐसा फिट हुआ कि परेशानी में होता हूं तो मुंह से निकलता है, 'अल्लाह करम करना, लिल्लाह करम करना. बेकस पर रहम करना.' कर दुआ रहा होता हूं याद 'सनम बेवफा' आ जाती है. ये इश्क ही तो है. सोनम गुप्ता की रुसवाई देखकर और उसकी खामोशी पर बस ये ही दुआ है अल्लाह करम करना.

ये कैसा आशिक है जिसने सोनम को रुसवा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. नोट पर ऐसे लिख दिया 'सोनम गुप्ता बेवफा है.' जैसे कह रहा हो गुप्ता अंकल का मेडिकल खुला है. मुझे ये बेवफाई का नारा पढ़ कर वो दीवारें भी याद आती हैं जिन पर लिखा होता है गधे के पूत यहां न मूत. ऐसा लिखने वाली भी इस सिरफिरे आशिक की तरह ही नीच हैं, क्योंकि वो भी मूतने वाले को कुछ नहीं कह रहे, बल्कि उसके बाप को गधा बता रहे हैं, जिसके बाप को पता भी नहीं कि उसका बेटा कहां मूत रहा है. ये लिखा देखकर मुझे तो ऐसा लगता है जैसेमूतने वाला मूत तो दीवार पर रहा हो और वो मूत गिर रहा हो लिखने वाले के दिमाग में. अगर ऐसा न होता तो वो कभी भी दीवार पर बाप को गधा न लिखकर मूतने वाले को सबक सिखाता.

ये आशिक भी अगर सोनम से यक़ीनन इश्क करता तो कभी नोट पर ऊल-जलूल हरकत न करता. क्योंकि सोनम गुप्ता उसे नहीं मिली तो इसका मतलब ये तो नहीं हुआ कि वो बेवफा है. उसकी कुछ मजबूरियां रही होंगी. हो सकता है उसे बुखार आ गया हो. हो सकता है उसका एक्सीडेंट हो गया हो. हो सकता है उसकी ऑफिस में शिफ्ट चेंज हो गई हो और उसे घर से निकलने का टाइम न मिलता हो. हो सकता है कोई रिश्तेदार घर पर मेहमान बनकर आ गया हो. उसकी खातिर तवाजो में आशिक से मिलने की फुर्सत न मिली हो. तूने नोट पर लिखा है तो मान लेते हैं सोनम जानबूझकर नहीं आई. तो इसका बदला ये तो नहीं कि तुम उसके इश्क को सरकारी कर दो. और वो इश्क सबके हाथों में नाचे.

तुमने तो लिख दिया जो लिखना था. अब सोचो अगर तुम्हे यकीनन सोनम से इश्क था तो अब तुम्हारा इश्क बाजारों में लुटेगा. कोई उससे सब्जी मार्केट में कद्दू खरीदेगा. कोई मेडिकल से दर्द को खत्म करने के लिए डिस्प्रिन या सीने का जलन दूर करने के लिए ENO खरीदेगा, क्योंकि दस रुपये में ये ही सब मिल पाएगा और क्या मिलेगा ?

 वो नोट कभी इस हाथ में तो कभी इस हाथ में. दर-दर भटकेगा. कोई उस पर हंसेगा. कोई गरियाएगा. ऐ दिखावे वाले आशिक, ये सिर्फ चाहत थी तुम्हरी, सोनम को पाने की. मोहब्बत होती तो कभी अपने इश्क को यूं रुसवा न करता. खुद को आग के दरिया में डाल देता और अपने इश्क को बचा लेता.

ये भी तो हो सकता है कि इस आशिक की मोहब्बत 1993 में आई डर फिल्म के शाहरुख खान की तरह हो. क्या पता एकतरफा मान बैठा हो कि वही सोनम का बॉयफ्रेंड है. क्या पता सोनम किसी और से प्यार करती हो. और फिर ये आशिक डर फिल्म के शाहरुख खान की तरह उसे पाने के लिए स.स.स्स्स सोनम करता फिरा हो. क्योंकि शाहरुख खान भी तो क.क.कि किरन करता फिरा था पूरी फिल्म में. तुम जो भी हो मियां मिठ्ठू आशिक, ये सही नहीं है. तुम बहुत ही गलत हो. सोनम तुम्हे नहीं मिली तो उसे बेवफा घोषित कर दिया. अच्छा हुआ जो सोनम तुम्हारे साथ नहीं है. नहीं तो उसे 10 रुपये के लिए बेच भी सकते थे. सोनम तुम जहां भी हो खुश रहो. ये आशिक नहीं बन सकता.

Sunday 8 May 2016

मां आज अनवर आपके हाथ की भिंडी भी खा लेगा

मां तुम सोशल मीडिया पर अपना घर क्यों नहीं बसा लेतीं। देखो आपके फरमाबरदार बेटे कितनी खूबसूरत बातें आपकी शान में लिख रहे हैं। "लव यू मॉम" कहते कहते प्यारी बेटियों के लबों पर खुशकी आ जा रही है। मां तुम देख भी पा रही हो या नहीं। या फिर बच्चों की भूख मिटाने के लिए चूल्हा संभाले बैठी हो।
सोशल मीडिया पर मां ही मां है, लेकिन मां तुम्हारी ये खामोशी बता रही है कि तुम इस बात की उलझन में बैठी हो रात को खाने में क्या बनाऊं, क्योंकि अनवर को भिंडी पसंद नहीं है, फोजिया को गोश्त से एलर्जी है और उनके पापा दाल पसंद नहीं करते हैं। फिर भी तुम सबकी पसंद पूरी कर देती हो। पसंद में जरा सी मिर्च तेज हुई तो खाना धरा रह जाता है और तुम्हारी मेहनत बेकार। तुम बेकार की उलझन मेे बैठी हो। मां आओ तुम्हें सोशल मीडिया की सैर करा दूं। देखो तुम्हारे बच्चे सुधर गए हैं। यहां सब अच्छा-अच्छा है। अनवर आपके हाथ की भिंडी खा लेगा, क्योंकि वो तो तुमसे बहुत प्यार करता है। यकीन नहीं आ रहा न तुमको, क्योंकि आज तक तुमने अनवर को मनमानी करते और झिड़कते ही देखा है। चलो तसल्ली करने के लिए आजका उसका फेसबुक स्टटेस चेक कर लो। पक्का तुम्हारी आंखें भर आएंगी इतनी मोहब्बत देखकर।
फोजिया ने तुमसे बात करना बंद कर दिया था, क्योंकि तुमने उसके पापा को उसके लिए स्कूटी खरीदने से मना कर दिया था। तुम्हें उसकी सुरक्षा की फिक्र थी। फोजिया ने तुम्हारे निहोरे करने के बाद भी पूरा दिन खाना नहीं खाया था न। देखो वही फोजिया आज कई साल पुरानी तुम्हारे साथ खींची गई तस्वीर इंस्टाग्राम पर शेयर कर रही है। उस तस्वीर पर उसने कैप्शन भी दिया है। "मेरी मां मेरी जिंदगी, लव यू मॉम"
 तुम भी न बेकार की फिक्र में मरी जा रही थीं कि बच्चे पता नहीं बड़े होकर किसके नक्शे कदम पर चलेंगे। अब मैं क्या बताऊं तुम खुद ही सोशल मीडिया पर देख लो वो तो अपना आइडल तुमको ही मानते हैं। मां सच कहूं सारे बहन भाइयों पर बेइंतेहा प्यार आ रहा है। मन कर रहा है कि सबके स्टटेस को चूमता रहूं, जो तुम्हारी ममता में उमड़ पड़े हैं। बस अफसोस इस बात का है, तुम ये सुख भोग नहीं सकोगी, क्योंकि तुम्हारा तो सोशल मीडिया पर अकाउंट ही नहीं है। तुम इस प्यार से भी वैसे ही वंचित रह जाओगी जैसे घर में सबकी ख्वाहिशें पूरी करने के चक्कर में अपनी ख्वाहिशों को किसी कोने में दफन कर देती हो। बस मेरी तो ये ही दुआ है कि सोशल मीडिया में छेद हो जाए, ताकि उस छेद से प्यार रिसकर तुम तक पहुंच जाए। 
 मां तुमसे एक बात कहूं बुरा न मानना। देर रात तुम अब बच्चों का इंतजार न करना बेफिक्र होकर सो जाना, वो क्या है न कि आज दोस्तों के साथ डिस्को पार्टी में आने से लेट हो जाएंगे। मदर्स डे तो सिर्फ सोशल मीडिया पर स्टटेस डालने के लिए ही होता है न। तुम मदर्स डे के फालतू बहकावे में मत आ जाना।

 आपके साथ सेल्फी खींचकर फेसबुक पर न डालने वाला
 आपका नालायक बेटा

Saturday 7 May 2016

इश्क नफरतों के लिए जहर है

इश्क नफरतों के लिए जहर है


इश्क करने कराने की चीज नहीं। ये एक खुश्बू है, उसे समेटो। इश्क एहसास है, महसूस करो। इश्क किताब है, उसे पढ़ो। इश्क मासूम है, उसकी खताओं पर न जाओ। इश्क बंदगी है, कैद से न डरो। इश्क मौसम है, खुद को उसके तापमान में ढालो। इश्क दो जिस्मों का मिलन नहीं, रूहों का सुकून है। इश्क कोई मंजिल नहीं, एक सफर है, गुनगुनाते चलो। इश्क कस्तूरी है, उसे महकाओ, उसकी तलाश में मृग न बनो।   ....... जहां पहरा है, वहां इश्क है। जहां कोई रूठा है वहां इश्क है। जहां जिद है, वहां इश्क है। जहां वादा है, वहां इश्क है। उसकी पसंद, इश्क है। उसका मनना-मनाना इश्क है। हर रिश्ते में इश्क है। हर दिन इश्क है। हर लम्हा इश्क है। ....... "इश्क मुकम्मल नहीं, अधूरापन इश्क है।" इश्क में चलने की कोई तकनीक नहीं, कभी पगडंडी इश्क है तो कभी गुमनाम राहें इश्क हैं।
.... इश्क पहचान है। इश्क दास्तान है। इश्क मिसाल है। कोई काम मुश्किल नहीं, अगर इश्क है। इश्क करो, इश्क नफरतों के लिए जहर है।...

 #इश्क #प्यार #मोहब्बत

Sunday 2 February 2014

विजय शंखनाद 
के बहाने वोटों का ध्रुवीकरण                                                          

आ गए न अपनी हकीकत पर विकास की राजनीति का ढोंग रचाने वाले। भाजपा मोदी का चेहरा दिखाकर वोटों का धु्रवीकरण करना चाहती है। 2002 के दंगे लोगों के जहन में घर कर गए हैं। इतना ही नहीं क्लीन चिट मिलने के बावजूद मोदी की छवि दंगों वाली ही बनी हुई है। इसलिए भाजपा का मेरठ में विजय शंखनाद रैली का मकसद मुजफ्फरनगर के दंगों को लोकसभा चुनाव के लिए कैश करना था। इसके जरिए भाजपा मोदी की हिंदुत्व वाली छवि को और मजबूत करना चाहती है। यही वजह थी कि भाजपा विधायक संगीत सोम पर आरोप लगने के बाद सोम को मोदी ने सम्मानित किया। दंगा पीड़ितों के लिए कोई दर्द नहीं, कोई दुख नहीं सिर्फ और सिर्फ राजनीति। अगर दर्द है तो सिर्फ इस बात का, कि कांग्रेस ने 60 साल शासन किया। मुझे 60 माह ही दे दो। नक्शा बदलकर रख देंगे। वादा करते हैं चाय बेची है देश नहीं बेचेंगे। फेरे लेते वक्त बीवी का साथ देने का वादा किया होगा, लेकिन बीवी का साथ दे न सके देश का साथ देने चले हैं। 

मोदी की पत्नी का इंटरव्यू पढ़ा आपने?

'आरएसएस शाखाओं में गुजारते थे वक्त'

'आरएसएस शाखाओं में गुजारते थे वक्त'

सवालः क्या उन्होंने कभी आपसे कहा कि वह आपको छोड़ रहे हैं या शादी का रिश्ता खत्‍म कर रहे हैं?

जशोदाबेनः उन्होंने एक बार कहा था, "मुझे देश भर में घूमना है और जहां मेरा मन करेगा, मैं वहां चला जाऊंगा, तुम मेरे पीछे आकर क्या करोगी?" जब मैं उनके परिवार के साथ रहने के लिए वाडनगर आई, तो उन्होंने मुझसे कहा, "अभी तुम्हारी उम्र ज्यादा नहीं है, फिर तुम अपने ससुराल में रहने के लिए क्यों आ गईं? तुम्हें अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए।" अलग होने का फैसला मेरा था और हमारे बीच कभी कोई टकराव नहीं हुआ।

वो मुझसे आरएसएस या किसी और राजनीतिक विचारधारा की बात कभी नहीं करते थे। जब उन्होंने मुझे बताया कि वह मनमुताबिक देश भर में घूमना चाहते हैं, तो मैंने कहा कि मैं भी उनके साथ आना चाहूंगी। हालांकि, कई मौकों पर जब मैं अपने ससुराल गई, तो वह वहां नहीं होते थे और उन्होंने वहां आना भी छोड़ दिया। वह काफी वक्‍त आरएसएस शाखाओं में गुजारा करते थे। इसलिए मैंने एक वक्‍त के बाद वहां जाना छोड़ दिया और अपने पिता के घर लौट गई।                                                                                                                                                                                                                                                    
यह हकीकत है कि आतंकवाद एक बड़ा मुद्दा है जिससे पार पाना बहुत जरूरी है ये देश की जड़ें खोखली कर देता है, लेकिन भाजपा के पास इस मुद्दे पर बोलने के अलावा कुछ नहीं है। कभी दंगों पर बोलते हैं कभी मंदिर पर तो कभी आतंकवाद पर। दंगों की राजनीति में समाजवादी पार्टी भी पीछे नहीं रहने वाली थी, क्योंकि उसे भी लोस चुनाव में मुस्लिम वोट चाहिए। मौका भी था और दस्तूर भी। हो गया ऐलान सहारनपुर में विशाल जनसभा करने का। शासन में होने के बावजूद रैलियां करने की जरूरत पड़ रही है सपा को। मुस्लिम वोटर को राजी भी तो रखना है ना। नहीं तो प्रधानमंत्री बनना ख्याली पुलाव बनकर रह जाएगा। मुस्लिम मतदाता को हाथ से फिसलता देख चंद मुस्लिम नेताओं को लाल बत्तियां बांट दी गईं। सैफई मस्ती में कब वक्त गुजर गया कुछ पता ही नहीं चला मुख्यमंत्री अखिलेश को। उम्मीदें बहुत थीं युवा मुख्यमंत्री से, लेकिन बबलू हैप्पी बहुत था इसलिए सैफई में डीजे तो बजना ही था डीजे की गूंज, दंगों के दर्द को छिपाने में नाकामयाब रही।                                                                    
मोदी की पत्नी का इंटरव्यू             

http://www.amarujala.com/feature/samachar/national/i-know-he-will-become-pm-one-day-says-modi-s-wife/