Saturday 9 March 2013

मीडिया को आत्म नियमन में सौदेबाज़ी से बचना होगा


 आज मीडिया ने जिस तरह से अपने स्वरूप में बदलाव किया है या यह कहें कि देश के आन्दोलनों में मीडिया ने जिस तरह से बढ़ चढ़कर हिस्सेदारी ली है। उससे राजनेताओं को अपने वजूद और पावर के खो जाने का खतरा सताने लगा है। इसी डर से उनकी तरफ से मीडिया नियमन का डमरू बजने लगा है। कहा जाने लगा है कि मीडिया अपनी सीमा रेखा को लांघ रहा है। वह सामाजिक सरोकार भूल रहा है। वह अनाप-शनाप बकता है। जो नहीं दिखाना चाहिए वह भी दिखाता है जिससे आराजकता फैलने के अन्देशे कुछ ज़्यादा हैं। इसलिए इसको रेग्यूलेट किया जाना ज़रूरी है। इन्ही राजनेताओं के साथ साथ अन्य दूसरे लोग भी जो इनकी जी हुज़़ूरी में लगे रहते हैं वह भी मीडिया नियमन के शिगुफे पर ज़्यादा ज़ोर दे रहे हैं। यह सब बाते उनकी तरफ से ज़्यादा हो रहीं हैं जो खुद रेग्यूलेट नहीं हैं। चाहें वो राजनेता हों या फिर कोई और। वह मीडिया को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना चाहते। क्योंकि उनमें सत्ता की ललक है वह मीडिया को अपने नियंत्रण में रखना चाहते हैं।
      दूसरी तरफ मीडिया को उन्नीसों पिचहत्तर से ही सरकारी नियंत्रण में जाने का खतरा सताता रहता है। इसलिए वह आत्म नियमन की ढकोसले बाज़ी करके कारपोरेट की धूर्तता को नज़र अन्दाज़ कर देता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई देता है। लेकिन अब सवाल यहां यह पैदा होता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किसको है ? रिर्पोटर को, एडिटर को, या फिर मालिक को ? आज ख़बरों का स्वरूप बदलकर उसको सबके सामने पेश किया जा रहा है। हक़ीक़त को छुपाया जा रहा है। अगर यह कहें कि मालिक या कारपोरेट की मजऱ्ी दिखायी जाती है तो अतिश्योक्ति नहीं होगा। पत्रकारों के श्रमिक अधिकारों को छीन लिया गया है। पत्रकारों को सुरक्षा दिऐ बिना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करना बेमानी होगा।
      आज जिस तरह से मीडिया में संकेन्द्रण की प्रवृत्ति ने ज़ोर पकड़ रख है उससे सबसे ज़्यादा ख़तरा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को है। क्राॅस मीडिया होल्डिंग ख़बरों के फलक को संकीर्ण कर रहा है। इसलिए मीडिया नियमन से ज़्यादा ज़रूरी है कि कारपोरेट और मीडिया के बीच एक लक्ष्मण रेखा तय की जाये ताकि लोगों के जानने के हक़ पर अघात न पहुंचे। यद्यपि कोई आत्म नियमन करना चाहता है तो करे लेकिन उसकी आड़ में अपने काले कारनामों पर पर्दा डालने की कोशिश न करे। जिस तरह से प्रेस परिषद अध्यक्ष नियमन की बात कर रहें हैं उससे तो यह लगता है कि वह मीडिया में तानाशाही की बात कर रहे हैं कि सारी पावर परिषद यानि उनके हाथ में आ जाये। अगर मीडिया को साफ सुथरा बनाने की बात होती प्रेस परिषद ने अब तक के समय में क्यों कोई ऐसे उदाहरण पेश नहीं किए जिससे लगता कि हां प्रेस परिषद अच्छा काम कर रही है और वह मीडिया पर लगातार नज़र बनाऐ हुऐ है बल्कि हर मामले में वह उदासीन बनी रहती है। फिर यह कैसे मान लिया जाए कि नियमन की जि़म्मेदारी वह सही ढंग से निभा पायेगी।
      मीडिया ने जो समाज में उत्सुकता और चेतना को कायम करने का प्रयास किया है उसको बरक़रार रखने के लिए ज़रूरी है कि वह नियमन के ज़रिए पावर हासिल करने के बजाये मीडिया से कारपोरेट के मकड़जाल को हटाने की कोशिश करे ताकि सही मायनो में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बाकी रहे।
      चाहें सरकार हो या फिर प्रेस परिषद जैसी संस्थाएं या फिर मीडिया मालिक हर कोई कारपोरेट के लिए नत मस्तक है। जो नियमन और आत्म नियमन की बात तो करते हैं और कारपोरेट के मीडिया पर हावी होने की बात पर चुप्पी साधे रहते हैं।
      मीडिया नियमन या फिर सेंसरशिप दोनों ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की कट्टर दुश्मन है यह जानते हुए नियमन की बात करना बेवकूफी होगा। ज़रूरी है कि आत्म नियमन के लिए जो बाॅडी बनी है उसको मज़बूती दी जाए साथ ही उसको निष्पक्षता और प्रभावी ढंग से करने के लिए प्रेरित किया जाऐ। या फिर मीडिया संस्थानों के गलती करने पर शिकायत दर्ज करके इतना दबाव बनाया जाए जिससे उसके प्रति आत्म नियमन वाली बाॅडी उस पर कार्रवाई कर सके। यद्यपि बाहर से कोई मीडिया को रेग्यूलेट करता है तो मीडिया केवल मदारी के इशारों पर नाचने वाली बन्दरिया बनकर रह जाएगा। मीडिया को बन्दरिया बनने से बचाने के साथ साथ कारपोरेट, संकेन्द्रण, क्राॅस मीडिया होल्डिंग जैसे तत्वों से एक दूरी या सीमा रेखा तय होनी चाहिए। वहीं मीडिया को भी आत्म नियमन के लिए प्रतिबध्दता दिखानी होगी उसे साबित करना होगा कि वह आत्म नियमन में किसी भी तरह की सौदेबाज़ी नहीं करेगा।