Tuesday 12 December 2017

जश्न-ए-रेख्ता छलकता जाम था, लो पी गया

जश्न-ए-रेख़्ता। अदीबों, शायरों के लिए सजा स्टेज, जिसके ज़रिए उर्दू पर बात हो सके। उर्दू से इश्क कराया जा सके। मुझे लगा था उर्दू के दीवाने होंगे। एक से बढ़कर एक दानिशमंद लोग होंगे। शायर लब हिलाएगा दीवाने उसकी बात को पहले समझ लेंगे। मैं ये सोचकर परेशां था कि उर्दू इश्क की ज़बां, फिर उसका जश्न मेजर ध्यानचंद स्टेडियम में क्यों? स्टेडियम में तो खेल होते हैं। उर्दू तो इश्क़ कराती है। सुना ही होगा, ये इश्क नहीं आसां, एक आग का दरिया है...' जब स्टेडियम पहुंचा तो मुझे लगा, बहुत सही फैसला था। उसे मुबारकबाद देनी चाहिए जिसने स्टेडियम में ये महफिल रखी। वो तारीफ का हक़दार है। उसे पता था क्या क्या खेल होने वाले हैं। सब लोग यहां अपने-अपने हिसाब से खेल ही तो रहे थे। बड़े दिलचस्प खिलाड़ी यहां पहुंचे थे। मिलवाता हूं आपको उनसे। मिलिए :


1. फोटो खींचक। ये वो थे जो पंजे के बल उचककर, कभी 90 डिग्री पर झुककर, कभी जमीन पर बैठकर, कभी एक लालटेन के इर्द गिर्द या फिर लड़कियों के चक्कर काटकर कैमरे से क्लिक, खिच्चक सी आवाज़ निकाल रहे थे। अल्लाह जाने उर्दू की नफासत कैमरे आई या नहीं, लेकिन बड़े-बड़े कैमरे गले में लटका देखकर उर्दू ने सोचा जरूर होगा कि कहीं आज मैं इश्क करते हुए रंगे हाथ न पकड़ी जाऊं। मलाल रहा होगा काश कोई कैमरे की तरह मुझे भी अपने अंदर उतार लेता तो बदले में, मैं भी उसकी ज़बान में शीरी घोल देती। मगर फूटी किस्मत। चार दिन का प्यार करने वालों की शायरी में सिमटकर रह गई हूं। ये जश्न मेरे लिए ऐसा ही है जैसे कोई ब्यूटी काॅन्टेस्ट हो। मेरे सिर ताज रखा जाएगा, इसके बाद कहां होऊंगी, पता नहीं।

मंटो होते तो जरूर ये देखके ज़हर मांग लेते।
2. सेल्फीबाज! ये बड़े ही खूबसूरत लोग थे। इन्हें खुद से इश्क़ था। इश्क़ की तलाश भी थी। बड़ी तमन्ना से पहुंचे थे, कोई तो हमपर भी नज़र डाले। कौन सा ऐसा कोना था, जहां कोई सेल्फीबाज़ नहीं था। उर्दू पक्का सेल्फी प्वाइंट को अपनी सौतन मान बैठी होगी बेचारी। और माने भी क्यों न। लोगों को न किताबों में दिलचस्पी थी और न उन अदीबों, शायरों में जो माइक पकड़े अपना गला खुश्क़ कर रहे थे। लोग 'आई लव उर्दू' वाले तो कहीं 'इश्क़ उर्दू' वाले सेल्फी प्वाइंट से चिपके जा रहे थे। उर्दू बेचारी ये सब देखकर ऐसे बेचैन थी जैसे प्यासे के सामने पानी। 

सेल्फीबाज़ चेहरे पर अजीब-अजीब एक्सप्रेशन ला रहे थे, ताकि एक सेल्फी ढंग की आ जाए, और फिर सोशल मीडिया पर सजाई जा सके। चेक इन कर सकें। एट जश्न-ए-रेख्ता। ऐसा करके इलीट फीलिंग आ जाती है न, बस इसलिए। वैसे जो चेहरे पर एक्सप्रेशन ला रहे थे, वो बेचारी उर्दू को पक्का ऐसे फील हुए होंगे जैसे ये सेल्फीबाज़ उर्दू का मुंह चिढ़ा रहे हों।

3. दुकानदार। भाई साहब पूछो मत जबरदस्त खेल तो इनका था। पता है एक A3 और A4 पोस्टर कितने का था। 200 रुपये का। महज एक फोटो और उसपर शायर का एक शेर या कोट। आप ऐसे पोस्टर खुद कंप्यूटर पर बना सकते थे, शायद और भी अच्छा बना सकते थे। हद तो ये थी झोले बिक रहे थे, 40-50 रुपये में भी जो आप बाज़ार से न खरीदो वो झोला पूरे 300 रुपये का। उसपर लिखा क्या था ये और भी बड़ा खेल था। सेकुलर झोला, फेमिनिस्ट झोला। मतलब सेकुलर बनना है या फेमिनिस्ट दिखना है तो बस 300 रुपये वाला झोला उठाके चल दो। उर्दू ने ये देखकर माथा जरूर पीटा होगा कि इस झोले में मैं कहां हूं? या फिर सोचा होगा कि मैं तो He, She नहीं करती आप-आप करती हूं फिर ये झोले किसलिए? अब आप बताइऐ इतने महंगे आइटम कौन खरीदता, जो बाज़ार में पहले ही सस्ते हों। तो कैसे उर्दू का भला होता।

50 रुपये वाली चाय की लाइन।
4.लज़ीज़ फूड काॅर्नर। ये ही वो जगह थी जो हमेशा गुलज़ार रही। कहां किस पंडाल या स्टेज पर क्या हो रहा है, ये लोग इस मोह माया से बहुत ऊपर उठ चुके थे। इन्हें न उर्दू से बैर था न हिंदी से इश्क। मशग़ूल थे लज़ीज़ गुलावटी क़बाब खाने में। चाय के स्टाॅल पर तो इतनी भीड़ थी कि लाइन लगकर लोग चाय खरीद रहे थे। ये भीड़ शायद इसलिए भी हो सकती है कि सबसे सस्ती ये ही थी पूरे फूड कोर्ट में। 50 रुपये की चाय। स्वाद ऐसा, न पूछो तो ठीक है। चाय के स्टाॅल पर भीड़ देखकर लगा कि एक अदीब या शायर रेख़्ता वालों को यहीं बैठा देना चाहिए था। कम से कम लोग चाय के बहाने ही कुछ सुन तो लेते। उर्दू फूड कोर्ट को गुलज़ार देखकर कंफ्यूज़ हुई होगी कि खुश होऊं या दुखी? लोग मेरे बहाने घूमने निकल आए ये खुशी की बात है। मुझे नहीं सुना तो आए क्यों ये दुखी होने की बात है।

PC: Ankur kumar SIngh

आखिरी बात! 

वैसे तो कुछ भी आखिरी नहीं होता, लेकिन बात को एक खूबसूरत मोड़ पर भी तो खत्म करना होता है। जश्न-ए-रेख्ता में उर्दू! इश्क! नजाकत! नफासत! ओह! वाॅव! सेल्फी! लव बर्ड्स! लज़ीज़ क़ोरमा, बिरयानी! सब मौजूद था। ये जश्न नहीं था छलकता जाम था। लोग नोश फरमाने पहुंच रहे थे। जश्न-ए-रेख़्ता मयखाना था। सब ने जाम छलकाए। मैं भी जाम पी गया। उर्दू कहीं कव्वाली से छलकी, कहीं नज़्म बनी। कहीं काॅमेडी हुई। उर्दू की नहीं सच्ची की स्टैंड अप काॅमेडी। कहीं महबूब को महबूबा से मिलाया तो कई के मिलने के वादे पूरे हो गए। 

सब थक कर मयखाने से घरों को लौटते रहे। घर पहुंचते-पहुंचते वो नशा उतर जाएगा, क्योंकि लोग कहते निकले इस बार वो मज़ा नहीं आया जो पहली बार और दूसरी बार के जश्न-ए-रेख्ता में आया था। इस बार अच्छे लोग नहीं बुलाए। ये मज़ा तलाशने वाले लोग अगले साल फिर आएंगे। अपने नए पार्टनर के साथ। जश्न होगा उर्दू का। इन लोगों को तो मज़ा चाहिए, जो इसबार नहीं आया। उम्मीद है रेख़्ता टीम अगली बार और मज़ेदार जश्न करेगी। उर्दू का क्या है वो तो किताबों में लिखी है। भले अब उसे कोई पढ़ने वाला रहे या न रहे। बस जश्न होता रहे। लेकिन एक बात अच्छी है इस जश्न की, जैसे रात भर जाम नोश फरमाने के बाद खुमारी रहती है, वैसे ही इसकी भी लोगों पर रही होगी। ये अच्छा इसलिए है कि न से कुछ हां तो है।

5 comments:

  1. अस्तगफिरुल्लाह

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  2. इश्क़ अधूरा रह गया,
    जश्न मुकम्मल हो गया,
    दीवाने सब मिल गए,
    उर्दू फिर से तन्हा रह गई,

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    1. उससे (उर्दू) कहो अगले बरस उसके महबूब फिर आएंगे। सज संवरकर तैयार रहे।

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  3. अगले बरस भी तू जल्दी आना!☺
    जश्न ए रेख़्ता

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