Friday 15 December 2017

इस बार बच गया, शायद अगली बार मुस्कुरा भी न पाऊं!

PC : Amitesh Sinha

दिल्ली में सीलमपुर की रेड लाइट। शाम के 3.30 बजे थे। मन में था कहीं लेट होने की वजह से बॉस के सुंदर वचनों से ऑफिस में मेरी आरती न उतारी जाए, इसलिए ऑफिस जाने के लिए जल्दी में था। 4 बजे तक आईटीओ पर पहुंचना था। रेड लाइट क्रॉस ही कर रहा था कि कोई चार-पांच या फिर 6-7 लौंडो ने घेर लिया। मैं उनके घेरे को नहीं समझ पाया। मुझे लगा था कि मेरी तरह ही लोग होंगे जो रोड क्रॉस कर रहे हैं। मेरी ये गलत सोच अगले पल ही बिखर गई, क्योंकि मैं उनकी गिरफ्त में आ चुका था। सामने से गुजर रही गाड़ी दूर होने के बादजूद वो लोग पीछे को ये कहते हुए हटने लगे कि अरे कैसे गाड़ी चला रहा है मारेगा क्या? ये कहते कहते पूरी तरह घेरे में ले लिया था।
मैं तो जल्दी में था ही उनको साइड कर आगे निकलने को कोशिश में था, मगर मेरे सामने वाला इस स्टाइल में पीछे हटा कि उसने मेरे दोनों पैरों पर अपने पैर रख दिए और सॉरी सॉरी का ढोंग करके मेरे माइंड को कैप्चर करने लगा। मेरा दिमाग उन पैरों में दब चुका था। फौरन ही उसके दो साथियों ने भी अपना हुनर दिखाना शुरू कर दिया। हाथ की सफाई वाला हुनर। दो हाथ मेरी जेब में गए। एक में पर्स था दूसरी में मोबाइल। उनके जादू का मुझे एहसास भी नहीं हुआ कि मेरे साथ हो क्या रहा है। मोबाइल जेब से बाहर आने ही वाला था कि मेरा हाथ जेब पर लगा। तो लड़के का हाथ भी टच हुआ। मैंने फौरन मोबाइल थाम लिया।
अब आधा मोबाइल मेरे हाथ में था और आधा लुटेरे के। दिमाग सुन्न हो चुका था। बिल्कुल इस तरह जैसे दिसंबर की ठंड में किसी ने मेरे दिमाग पर बर्फ की सिल्ली रख दी हो। होता भी क्यों नहीं, उन लोगों के चाकू और पिस्तौल अब मुझे दिखने लगे थे। मोबाइल पकड़े हुए मैं एक शब्द नहीं बोल पाया। बस उन लोगों को देखकर मुस्कुराता रह गया। ये सब बहुत तेजी से हुआ। इतनी तेजी से कि अगर आप ऊपर से यहां तक सब एक सांस में भी पढ़ जाओ तो भी शायद ज्यादा टाइम लगे। इतनी स्पीड से हुआ सबकुछ। मेरी लाचारी वाली मुस्कुराहट थी या फिर कुछ और कि जो मुझे घेरे खड़े थे उन लोगों ने छोड़ दिया। पर्स वाला हाथ भी बाहर हो गया। मैं खुद के बचने से जितना ज्यादा हैरान था, उतना ही ज्यादा डर के मारे परेशान था। कोई उस वक्त पुलिस वाला भी नजर नहीं आया। उनके घेरे से निकलकर ऑटो में बैठा। दिमाग अब भी सुन्न था। ऑटो वाला पूछ रहा है कहां जाना है। मैं उसे बता नहीं पा रहा हूं। बस चलने को बोल रहा हूं। जल्दी चलो यहां से। कुछ दूर चलकर बताया आईटीओ जाना है।
मैं ऑटो में बैठा सोचता रहा, अगर मैं मुस्कुराया न होता तो क्या हो जाता आज। सोच रहा था, मोबाइल निकालने वाले को तेज आवाज में अगर इतना भी बोल देता है, क्या है? तो आज मेरी खैर नहीं थी। पता नहीं कौन सी डिग्री मेरे ऊपर इस्तेमाल करते। चाकू चलता या फिर पिस्तौल। ऑफिस पहुंचकर ब्लॉग लिख रहा हूं तो यकीन नहीं हो रहा कि मैं और मेरा सामान सब सेफ है। वो भी एक मुस्कुराहट की वजह से! 

लुटेरे के लिए न मैं हिंदू था न मुसलमान। उन्होंने मेरा नाम भी नहीं पूछा था। बस उनके लिए शिकार था। लूट का शिकार! न यहां गोमाता की बात थी। न कोई वंदे मातरम चिल्ला रहा था। न मस्जिद या मंदिर की नींव रख रहा था। न पाकिस्तान के षड़यंत्र रचने की बात कर रहा था। न ये था कि एक मुसलमान सीएम न बन जाए। हां यहां वो हो सकता था जो होना चाहिए था। जिनको इन बकलोलियों ने खिलौना बना दिया है। वो है कानून! कानून पर फोकस होता। सुरक्षा कड़ी होती। पुलिस का खौफ होता तो मैं बेखटक ऑफिस जा सकता था।

दूसरी बार मोबाइल लुटने से बचा है। पहली बार नोएड में अटैक हुआ था। बाइक सवार लुटेरों ने सेक्टर 63 में पुलिस बूथ के पास पीछे से सिर पर जोरदार थप्पड़ मारा था। मोबाइल पर बात करता हुआ जा रहा था कोई तीन साल पहले। मोबाइल छीनने की कोशिश की थी, मोबाइल नीचे गिर गया था। लुटेरे रुक इसलिए नहीं पाए थे कि पुलिस बूथ बराबर में था वरना रुककर लूट ले जाते। इस वारदात के बाद से मोबाइल को रास्ते में जेब से नहीं निकालता था। जेब में ही रखता था। कॉल आने पर भी तब तक नहीं निकालता था जब तक श्योर न हो जाऊं कि सेफ हूं या नहीं।

.... लेकिन अब तो जेब पर ही हमला हुआ। अब कैसे घर से निकलूंं?

क्या मैं वंदेमातरम का नारा लगाकर चलूं तो सेफ रहूंगा। प्लीज सलाह दें। मुझे रोज ही पेट की भूख मिटाने के लिए घर से बाहर निकलना पड़ता है, ताकि ऑफिस जा सकूं। इस बार बच गया पता नहीं अगली बार मुस्कुरा भी न पाऊं...! मैं तो दुआ कर रहा हूं आप सब सेफ रहें।

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